शहर
गमलों से निकल कर
निहार रहा है पहाड़ो को,
शहर देख रहा है
प्रकृति की अठखेलिया
स्वच्छ होता नभ
मनमोहक चांदनी
जीवों वनस्पतियों की
चहलकदमी
और
कर रहा है
स्वयं से मंथन,
लेकिन पहाड़
उदास है
गमगीन है
क्योंकि
वो जानता है
स्तिथियाँ बदल जाएगी
एक अंतराल के बाद
वो रह जायेगा एकाकी,
पहाड़ जानता है
ये प्रसन्नताएँ उल्हास
ये मन्त्रणाएँ
क्षणिक है
खो जाएगा ये सब
कहीं सुदूर
और
इन्ही गमलों में
खो जाएगा शहर
पहाड़ चुप है
हमेशा की तरह।
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